Nature love and humanism

मनुष्य की कृतज्ञता और प्रेम ही प्रकृति को बचा सकते हैं

जैसा की हम सब जानते है की धरती एक मात्र ऐसा ग्रह है जहां जीवन संभव है और प्रकृति ने हमें जीवन के लिए सभी जरुरी तत्व जैसे हवा पानी मिटटी आदि प्रचुर मात्रा में दिए हैन, पर जैसे जैसे पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति हुई और जैसे जैसे मानव धरती पर बढ़ने लगे तो उन्होंने इन प्राकृतिक तत्वों का उपयोग करना शुरू किया पर आज के मानव में और आज से हज़ार वर्ष या यों कहें कि मात्र ५०० वर्ष पुराने मानव में बहुत अंतर हैन। अगर हम प्रकृति क दृष्टिकोड से देखें तो यह अंतर और गहरा हो जाता है।

प्रकृति के संसाधनों का दुरुपयोग या उसका ह्रास जैसा आज के मानव ने किया है वैसा पहले कभी नहीं हुआ, आज मानव अपने निजी विकास और अधिक धन के लालच में प्रकृति को बहुत बड़ी मात्रा में नुकसान पहुंचा रहा है जबकि पहले के मानव प्रकृति प्रेमी और प्रकृति से जुड़े रहते थे वो अपने साथ साथ प्रकृति का भी विकास करते थे ना कि अपने निजी फायदे के लिए उसका ह्रास करते थे।
पहले के मानव यह अच्छे से जानते थे कि प्रकृति से हम हैं हमसे प्रकृति नहीं यहां तक कि वह अपने आने वाली पीढ़ी को भी इसके साथ मिलकर रहने और इसकी महत्वपूर्णता बताने में नहीं चूकते थे, वे जानते थे कि उनकी आने वाली पीढ़ी को इसके बारे में जितना बताया जाए उतना इसका पोषण हो सकेगा; क्योंकि वो इसको ऐसे गैरजिम्मेदाराना पीढ़ी के हाथ में नहीं जाने देना चाहते थे जिससे इसको नुकसान पहुंचे और जिसका खामियाजा आने वाली कई पीढ़ियां उठाएं।

हमारा प्रकृति प्रेमी होना कोई काम नहीं है जिसे कि हम अपने व्यवसाय या रोजगार की तरह करें अपितु यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है और बहुत जरूरी है क्योंकि मानव जीवन में कई ऐसी वस्तुएं-सुविधाएं हैं जिनके बिना हम रह सकते हैं या यूं कहें कि बिना इनके जीवन भी बिता सकते हैं, पर जरा सोचिए बिना हवा, पानी, पर्यावरण के क्या हम एक दिन भी रह सकते हैं; एक दिन तो छोड़िए प्रकृति ने हमें ऐसे संसाधन दिए है जिनके बिना एक सेकंड रहना बहुत मुश्किल है उदाहरण के लिए हवा जिसमें की प्राणवायु ऑक्सीजन नामक प्राकृतिक गैस होती है जो हमारे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
हाल ही में कोरोना महामारी की दूसरी लहर में हम सब विश्व के लोगों ने इसकी उपयोगिता को देखा और यह घटना शायद यह संकेत थी कि आज के मानव ने किस हद तक इस प्रकृति को नुकसान पहुंचाया है।

अब बात करें आज के प्रकृति प्रेमी मानव की तो आज तो किसीको प्रकृति प्रेमी कहना ही प्रकृति के लिए नाइंसाफी होगी क्योंकि प्रेमी शब्द ही आज के मानव के लिए कहना बिल्कुल भी सही नहीं है और पिछले १०० वर्षों में मानव की गतिविधियों से तो बिल्कुल भी यह नहीं कह सकते कि यह प्रकृति प्रेमी है, और इसमें कहीं न कहीं आज का हर मानव शामिल है।आज के हर एक मानव के निजी जीवन में कोई ना कोई ऐसी गतिविधि शामिल है जिससे प्रकृति को नुकसान पहुंचे और इसमें सरकारे भी अपना सहयोग बखूबी दे रही है।

पिछले 100 वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि जो प्रकृति हमारी मित्र की तरह थी, आज उससे बड़ा मानव का शत्रु कोई नहीं और शायद यह शत्रु शब्द प्रकृति के लिए इस्तेमाल करना सही नहीं होगा क्योंकि इसको हमारा शत्रु बनाने में हमारा ही हाथ है। जिस प्रकृति की गोद में पहले के मानव अपना जीवन सुखमय तरीके से जीते थे; तो फिर ऐसा क्या हुआ कि कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली प्रकृति और मानव एक दूसरे का गला पकड़ने लगे और एक दूसरे की सांसो के दुश्मन बन गए I अब जरा इस पर जोर दे तो पता चलेगा कि विकास की दौड़ में, एक दूसरे से आगे जाने की होड़ में सुख सुविधाओं की होड़ में, अधिक से अधिक धन कमाने की होड़ में, विकास के लिए संसाधनों का अधिक से अधिक उपयोग करने की होड़ में, और अपने आप को मॉडर्न दिखाने की होड़ में हमने प्रकृति को बहुत पीछे छोड़ दिया और इतने पीछे छोड़ दिया कि अगर अभी भी हमने कुछ नहीं किया तो फिर वापस प्रकृति की गोद में जीने का सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा।
आखिर क्यों आज का मानव इतना मतलबी और अहंकारी हो गया है कि उसको किसी के हित के बारे में सोचना तो दूर, उसकी परवाह भी नहीं कर रहा है, यहाँ तक कि उन प्राकृतिक संसाधनों की भी नहीं जिनके बिना जीवन सोचना भी एक सपना है। आखिर आज के नए युग के इस मानव ने क्या ठानी है और यह क्या करना चाहता है और ये कितना खिलवाड़ करेगा पर्यावरण से, और कितना नुकसान पहुँचाएगा इतनी सुंदर प्रकृति को । आज की आधुनिकता और चकाचौंध ने हमारी सोच को इस कदर मार दिया है कि हमें बस अपने स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिखता यहां तक कि किसी जीव जंतु का जीवन भी हमारे स्वार्थ के आगे कुछ भी नहीं। अगर हम पहले के मानवों की बात करें तो वो प्रकृति से जुड़े हर जीव जंतु का ख्याल रखते थे यहाँ तक कि सनातन धर्म में और कई धर्मों में तो ज्यादातर त्यौहार भी प्रकृति से ही जुड़े होते थे , आज भी कई ऐसे त्यौहार मनाए जाते हैं जो पूरी तरीके से प्रकृति को समर्पित होते हैं और जिनमें यह सीख दी जाती है कि किस तरह आप इस पर्यावरण को सुरक्षित और इसके प्रेमी बन सकते हैं।

यह बात भी सच है कि पर्यावरण प्रेमी जब पर्यावरण के प्रेम में जब डूब जाता है तो जैसे दो प्रेम करने वाले आपस में प्यार भरी बातें करते हैं, प्रकृति और मानव भी ठीक उसी तरह आपस में बात करते हैं फिर मानव को प्रकृति का हर एक अंश महसूस होता है और यह सब तभी संभव हो सकता है जब आप सच्चे प्रेमी हों, जो कि पहले के मानव थे, पर आजकल यह प्रेम कहीं खो सा गया है। आज का मानव प्रकृति को तनिक भी महसूस नहीं कर सकता ना उससे प्रेम कर सकता है क्योंकि आज के मानव ने ऐसा कुछ छोड़ा ही नहीं जिससे कि वह प्रेम कर सके और जिसको महसूस कर सके।
आखिर क्यों ऐसा हो गया है कि हम प्रकृति की ऐसी दुर्दशा कर रहे हैं और पहले ऐसा क्या था कि लोग इसको इतना महत्व देते थे। एक मूल कारण है कृतज्ञता पहले के लोग प्रकृति के प्रति कृतज्ञ थे और उन्हें पता था कि ईश्वर ने उन्हें इतना सब कुछ बिना किसी मूल के दिया है और वह भी प्रचुर मात्रा में, जो जीवन जीने के लिए बहुत उपयोगी है। उदाहरण के तौर पर विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले पर वह कृत्रिम हवा नहीं बना सकता जिसमें हम साँस ले सके, ना कृत्रिम जल बना सकता है जिससे हम अपनी प्यास बुझा सके ना ही ऐसी मिट्टी जिसमें कि हम कुछ उगा सके, इसलिए पहले के मानव इन सब प्राकृतिक संसाधनों का महत्व अच्छी तरह से जानते थे और इसके प्रति कृतज्ञता रखते थे जिसका परिणाम यह होता था कि प्रकृति भी अपनी बाहें फैलाकर मानव को प्यार करती थी और यह तालमेल बना रहता था।

आजकल के मानव में जो सबसे बड़ी कमी है वह है कृतज्ञहीनता क्योंकि जिसके प्रति आप कृतज्ञ होंगे उसके प्रति आपका प्रेम प्राकृतिक रूप से अपने आप उजागर होगा और फिर उसका संरक्षण होना तो तय है पर आजकल के पर्यावरण की इस अवस्था का मूल कारण प्रकृति के प्रति प्रेम और कृतज्ञता की कमी है और कहीं ना कहीं हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यह नहीं बता रहे कि यह प्रकृति हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है। हमें यह समझना होगा कि जो विकास प्रकृति के सीने को चीरकर किया जाए और जिस विकास से विकास कम विनाश ज्यादा हो और भविष्य में इसके बढ़ने की आशंका और भी हो तो कोशिश की जाए कि ऐसे विकास को कम किया जाए या ऐसा कोई उपाय ढूंढा जाए जिससे प्रकृति को कम से कम नुकसान पहुंचे और उसका ह्रास ना हो।

सबसे पहला कार्य तो यह होना चाहिए कि हम प्रकृति प्रेमी बने और विश्व के सभी राष्ट्रीय मिलकर अपने अपने राष्ट्र में लोगों के बीच में प्रकृति की महत्वपूर्णता को बताएं और प्रकृति से प्रेम करना सिखाए और पूरे विश्व में ऐसा सामूहिक आंदोलन चले जिसमें हम सभी 7 अरब धरती वासी शामिल होकर इस प्रकृति के विनाश को रोककर इसके विकास के बारे में सोचे और प्रकृति को अपनी सबसे बड़ी जरूरत समझ कर इसके विकास की जिम्मेदारी लें।
सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सामूहिक तौर पर प्रकृति को बचाने की जिम्मेदारी ले और विश्व के सभी छोटे-छोटे बच्चे जो कि इस धरती का आने वाले भविष्य हैं उनको इस पर्यावरण के महत्वपूर्णता के बारे में बताया जाए; उन्हें बताया जाए कि यह प्रकृति हमें कितना कुछ दे रही है वह भी बिना किसी मोल।
प्रकृति को बचाने का जो दूसरा उपाय है, कि धरती पर मानव की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है और प्रकृति को नुकसान पहुंचाने में बढ़ती हुई जनसंख्या की एक अहम भूमिका है क्योंकि जितनी ज्यादा जनसंख्या होगी उतने ही संसाधनों की जरूरत हमें पड़ेगी और ना चाहते हुए भी हमें प्रकृति के खिलाफ कदम उठाने पड़ेंगे क्योंकि हम चाहे कुछ भी कर ले अधिक जनसंख्या से संसाधनों पर बोझ पड़ेगा ही पड़ेगा और ना चाहते हुए भी प्रकृति का नुकसान करना पड़ेगा, क्योंकि मनुष्य की जरूरतें प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं।
तीसरा कि समय-समय पर विश्व के सभी राष्ट्रीय अध्यक्षों को मिलकर इस धरती के हित में कदम उठाने चाहिए जिससे धरती में रह रहे सभी जीव-जंतु और मनुष्य का जीवन सुखमय हो सके क्योंकि पर्यावरण का यह मसला किसी एक राष्ट्र का नहीं अपितु पूरे विश्व का है और पूरे विश्व के सभी देश मिलकर ही इस विश्व को इस बड़ी आपदा से निकाल सकते हैं और इस धरती को पुनः पहले जैसा रहने लायक बना सकते हैं।

तब जाकर आशा की जा सकती है कि आने वाले कुछ वर्षों में विश्व के पर्यावरण में जरूर कुछ ना कुछ अच्छा बदलाव होगा।

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