हरेला

हरेला उत्तराखंड का लोक पर्व जो कि प्रकृति को समर्पित है। हरेला कर्क संक्रांति यानी सूर्य के कर्क राशि मे प्रवेश के दिन आता है, जो कि जुलाई महीने के 15, 16 या 17 तारीख को मनाया जाता है।
उत्तराखंड में यह प्रायः सावन के आगमन यानी हरियाली के आगमन का प्रतीक है । इसका नाम हरियाला आम बोल चाल की भाषा मे हरेला बोला जाता है।

लोक पर्वो में प्रकृति प्रेम स्वतः ही दिख जाता है और उस पर उनको धार्मिक मान्यताओं से जोड़ कर जहा प्रकृति को भगवान से सामान ही पूजा जाता है। इसी प्रकार हरेला को शुभ समृद्धि अच्छी फसल, पशु और धन धान्य के आगमन का त्योहार माना जाता है और ईश्वर से शुभ और स्वस्ति की कामना की जाती है।
जिस प्रकार सावन में हर तरफ हरियाली होती है मन प्रसन्न होता है और जीवन मे उल्लास होता है उसी प्रकार हरियाला या हरेला भी जीवन मे हरियाली यानी सुख समृद्धि का प्रतीक है। कई जगह इस दिन पेड़ लगाने का भी प्रचलन है।

उत्तराखंड में हरेला की शुरुवात 9-11 दिन पहले से ही जाती है जब गेंहू मक्का जौ के पौधों को घर के अंदर किसी टोकरी या थाली में अंकुरित किया जाता है, इसे हरेला बोना कहते है, क्योंकि हरेला हरियाली का त्योहार है तो इन पौधों से ही हरेला मनाया जाता है। हरेला के दिन इन पौधों को घर के बड़े बुजुर्गों द्वारा निकाल कर पूजा ध्यान करके घर के दरवाजो आंगन और दहलीज पर गाय के गोबर के साथ लगाया जाता है जो कि घर मे और आस पास सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
उसके कुछ हरेला के पौधो को घर मे सभी को आशीर्वाद दे कर उनके सिर पर इनको रखते है और आशीर्वाद एक मंत्र या कविता के रूप में होता है जिसका अर्थ है: “जीते रहो सजग रहो इस दिन (यानी हरेला) को मानते रहो, कमाई में 10 50 गुना तररकी करो जैसे दूर्वा घास बढ़ती है वैसे ही तुम्हारा परिवार और वैभव में वृद्धि हो, शेर जैसा साहसी बनो, लोमड़ी जैसा दिमाग वाला बनो। आकाश जैसे उचे यानी गंभीर रहो पृथ्वी जैसे धैर्यवान और स्थिर रहो, जब तक गंगाजी में पानी है और हिमालय में बर्फ है तब तक तुम्हरी कीर्ति रहे।”


प्रकृति को धार्मिक रूप देने का मकसद कोई अंधविस्वास नही बल्कि उसकी रक्षा करने से था। प्रकृति को संरक्षित करने को त्योहार मनाने का चलन लोक पर्वो में लगभग भारत मे हर जगह ही दिखता है। अतः वनो की रक्षा, पेड़ पौधों, वन्य जीवों और वन्य भू-भाग की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है ।
लेकिन आज भाग दौड़ और आधुनिक जीवन शैली में हम अपने लोक पर्वो को भूलते जा रहे है। नई पीढ़ी शायद इसे धकियानुसी या पुराने बे मतलब त्योहार समझती है, इन्हें मानना नही चाहती। लेकिन अगर देखा जाय तो इन पर्वो में कुछ भी अंधविस्वास या रूढ़िवादी नही है। वैज्ञानिक रूप में सोचा जाय तो भी इन पर्वो का महत्व बहुत है क्योंकि जैसे हरेला हरियाली को ही समर्पित है हरियाली, पेड़ों, वन और नदियों के बिना जीवन की कल्पना संभव नही है, यह धार्मिक मत भी है और वैज्ञानिक मत भी।

इस लिए” यो दिन भेटने रो” मतलब इस दिन को मनाते रहो। हरेला मानते रहे प्रकृति को बचाते रहो। सभी को हरेला पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।

ENDIAN Kailash Joshi

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