Nature’s 9 day festive Harela

सबसे लंबा चलने वाला प्रकृति का त्यौहार है हरेला

पर्यावरण पूजा सनातन संस्कृति का एक अभिन्न अंग है । कई पर्व त्यौहार एवँ परंपराएं भारतीय संस्कृति में ऐसी भी हैं जिनका सम्बंध समाज और धर्म के इतर वैज्ञानिक विश्लेषण से भी है। इन्हीं कुछ त्यौहारों में से एक त्यौहार हरेला है।

हरेला उत्तराखण्ड के कुमाऊँ और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है।

हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है पर वर्ष का दूसरा हरेला(श्रावण मास में) समाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता है तथा पूरे कुमाऊँ मण्डल में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। जहाँ श्रावण माह का हरेला श्रावण लगने से 9-11 दिन पहले बोया जाता है, वहीं  चैत्र मास का हरेला चैत्र की पहली तिथि तो बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है ठीक इसी प्रकार आसोज(अश्विन मास) का हरेला भी नवरात्रि के पहले दिन ही बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है।

हरेला पर्व हरियाली का प्रतीक तो है ही साथ ही कुछ परंपराओं के साथ यह कृषि एवँ जैव विविधता को भी संरक्षण प्रदान करने की बात भी बताता है । मिट्टी निकालने से लेकर हरेला चढ़ाने तक कुछ ऐसी वैज्ञानिक एवँ दार्शनिक बातें भी आपको इस त्यौहार की विधियों से पता चल सकती है।

हरेला बोने के लिए मिट्टी किसान अपने खेतों से लाते हैं, यही नहीं अगर मिट्टी खेत में किसी चूहे के उकेर(बिल) से निकाली गई हो तो और भी शुभ मानी जाती है । माना जाता है कि चूहे के बिल की मिट्टी मे लगभग आस पास के सभी खेतों की मिट्टी होती है जिससे कि सभी खेतों की मिट्टी उसी से प्राप्त हो जाती है ।

यहाँ इस बात को मानना पड़ेगा कि जहाँ एक तरफ चूहों को अनाज का दुश्मन माना जाता है वहीं चूहे की इधर उधर घूमने की इस प्रवृत्ति का हमारे पूर्वजों ने बहुत अच्छा उपयोग किया है, यह इस बात को भी दर्शाता है कि कैसे प्रकृति का कोई भी जीव कितना बहुमूल्य हो सकता है और मानव समाज के उलट प्रकृति में कोई किसी का पूर्ण शत्रु नहीं होता।

खेत से मिट्टी लाने के बाद उसे सुखाया जाता है और फिर उसे छाना जाता है। फिर उस मिट्टी को तिमिल के पत्तों के बने पुड़(टोकरी) या निंगओ(बाँस) की बनी टोकरी में रखा जाता है, वैसे आजकल लोग मिठाई के खाली डब्बों में भी रखते हैं। फिर इसमें पाँच प्रकार के अनाज के बीज गहत, राणा(सरसों), मक्का, जौ और गेहूं बोए जाते हैं।

फिर टोकरी को सूर्य की रौशनी से बचाते हुए किसी जगह पर सम्हाल कर रख दिया जाता है। हर दिन इसमें पानी डाला जाता है फिर आठवें दिन गुड़ाई भी की जाती है।

परम्परा अनुसार फिर 9-11 वें दिन हरेला काटा जाता है। हरेला काटने के दिन घर पर पूजा का आयोजन भी किया जाता है। हरेला काटने के बाद इसे अभिमंत्रित करके पहले अपने देवता को अर्पित किया जाता है फिर घर के परिवार वालों को लगाया जाता है, फिर जितने भी पालतू पशु हैं(गाय से लेकर कुत्ते- बिल्ली तक) उन सभी को लगाया जाता है, कहीं कहीं तो लोग घर पर अक्सर आने वाले पक्षियों के लिए भी अलग से हरेला रखते हैं। तद्पश्चात अंत में हरेला अपने घर के दरवाजों के पाँच जगह पर रखा जाता है।

हरेला चढ़ाने के बाद गाय और कौवों को सक्रांत(प्रसाद) दिया जाता है तब जाकर भोजन ग्रहण किया जाता है।यह सच में कितनी रोचक बात है कि जहाँ एक ओर आज एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल के नाम पर इतनी संस्थाएं खुल रहीं हैं, आंदोलन हो रहे हैं वहीं हमारे त्यौहार प्रकृति और पशु पक्षियों के हितों में सदियों से चलते आ रहे हैं।

हरेला निश्चित रूप से ऐसा एक त्यौहार है जो पौधारोपण, जैवविविधता संरक्षण एवँ कृषि समाज का एक प्रतीक है, पर सदियों से चले आ रहे इस त्यौहार को अब स्वयम संरक्षण की जरूरत है। अंधाधुंध तथाकथित मानव समाज विकास ने इन कुछ त्यौहारों को कहीं दबा दिया है। इस झूठे विकास के चलते लोग अब एकलु वानर बनना पसन्द करने लगे हैं और मेल मिलाप और हरियाली से पूर्ण इन त्यौहारों से कन्नी काटने लगे हैं। ऐसे में हरेला का यह पर्व आशा की नई किरण प्रदान करता हुआ आज भी सभी को यह संदेश दे रहा है कि प्रकृति में साथ मे मिलजुल कर रहना ही असली सामाजिक विकास है।

पहाड़ी समाज के ज्येष्ठ वृद्धों ने आज तक जिस प्रकृति के त्यौहार को सहेज कर रखा था अब उसकी जिम्मेदारी युवा पीढ़ी को उठानी है। जिससे कि जैसे आज हरेला हमारे पर्यावरण को बचाने के लिए हमें प्रेरित कर रहा है ठीक वैसे ही यह हमारी आने वाली पीढ़ी को भी एक जैव क्रांति के लिए प्रेरित करे।

आशा है कि इस श्रावण मास में हम सभी के अंतर में करुणा एवँ सहभागिता की ऐसी वर्षा हो जो वर्षों तक भूमि पर प्रेम और खुशहाली के वृक्षों को सींचने में इस धरा की मदद करे।

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